Monday 23 May 2016

श्री बाण माताजी से बायण , ब्राह्मणी , वरदायिनी और कुमारी अम्मा तक का संपूर्ण इतिहास ' श्री बाण माताजी भक्त मण्डल जोधपुर ' द्वारा प्रस्तुत

श्री बाण , बायण , ब्राह्मणी , वरदायिनी और कुमारी अम्मा तक का पूरा इतिहास ' श्री बाण माताजी भक्त मण्डल जोधपुर ' द्वारा प्रस्तुत

आद्यशक्ति माँ पार्वती के नो अवतारों में से दुसरा अवतार ' ब्रह्चारिणी ' माता ब्रह्मा जी की शक्ति से उत्त्पन्न होने के कारण ' ब्रह्मचारिणी माता ' ही ब्रह्माणी माताजी के रूप में सर्वत्र पूजित हैं।
अंसुरों के संहार के समय ब्राह्मणी माताजी ने अपने कमण्डल के पानी के छिड़काव से अंसुरों को शक्तिविहीन कर दिया था ।
ब्रह्माणी माताजी ने श्वेत हंस की असवारी , चार भुजा धारी जिसमे धनुष-बाण , रुद्राक्ष की माला , वैद और कमण्डल लिए हुए हैं ।
गुजरात में ब्राह्मणी माताजी के हर जगह बड़े-बड़े मन्दिर बने हुए हैं , गुजरात के पाटण के  सोलंकी राजपूत , पटेल , मोदी , राव , बारोठ , रबारी और प्रजापति आदि माँ ब्राह्मणी को अपनी कुलदेवी के रूप में पूजते हैं।
मेवाड़ के सिसोदिया राजवंश की कुलदेवी भी यही हैं , इतिहास के अनुसार पाटण के सोलंकी राज से शिशोदा के राणा राणा लक्ष्मण सिंह जी के साथ शिशोदा आए ।
बात उस समय की हैं जब
" राणा लक्ष्मण सिंह " द्वारिका यात्रा पर निकले रास्ते में पाटण रात्रि विश्राम के लिए रुके , उस समय पाटण के सोलंकी राजपुत राजा ने अपनी पुत्री राजकुमारी का स्वयंवर रचाया था जिसमे कच्छ के विशाल सिंगा भैंसे को मारना था
लेकिन यह कार्य कोई नही कर पाया ।
राणा लक्ष्मण सिंह को इस बात का पता चलते ही उन्होंने इष्टदेव प्रभु श्री एकलिंग जी का नाम ले उस कच्छ के विशाल सिंगा भैंसे की बलि दे दी ( मार दीया ) ।
शिशोद वंशावली और टोकरा  बड़वा की पोथी से यह उल्लेख मिलता है , जब " राणा लक्ष्मण सिंह " ने विशाल सिंगा भैंसे की बलि देने के संदर्भ में ये छंद दृष्टव्य है :-

" गढ़ पाटण गुजरात , जटे करे राज सोलंकी ।
पाडा उपर बही शिशोद , बिजल बल बंकी ।।

सीस सिंग खुर कटिया , कवर कामण बखाण ।
वाही तेग शिशोद , जटको जग जाहर जाण ।। "

इससे प्रसन्न होकर भटियाणी रानी ने अपनी पुत्री का विवाह राणा लक्ष्मण सिंह से करवा दिया , उस रात विवाह करने के पश्चात राणा पाटण में ही रुके । रात को स्वप्न में सोलंकियों की कुलदेवी श्री ब्राह्मणी माताजी ने माँ काली के रूप में स्वप्न में दर्शन देकर " राणा लक्ष्मण सिंह " को मेवाड़ साथ चलने को कहा , राणा मान गए लेकिन माँ से कहा " कि आप मेवाड़ चलिए लेकिन आपको मेवाड़ में बलि नही दी जायेगी आपको मिठा भोग स्वीकार करना पडेगा " एसा कहते ही माँ ने अपना रूप उज्ज्वल किया और ' अस्तु ' कह मीठा भोग स्वीकार किया ।
प्रभात में " राणा लक्ष्मण सिंह " ने राजकुमारी के साथ सोलंकियों की कुलदेवी माँ ब्राह्मणी की एक छोटी सी प्रतिमा के साथ मेवाड़ को रवाना हुए ।
सोलंकियों ने अपनी कुलदेवी माँ बायण के चुंदरी और गहनों को एक पेटी में रख कर " राणा लक्ष्मण सिंह " को सौप दी , राणा लक्ष्मण सिंह ने शिशोदा में माँ बायण का मंदिर बना अपनी कुलदेवी के रूप में नित्य पूजा अर्चना की , वो पेटी आज भी श्री बायण  माताजी के शिशोदा मन्दिर में हैं ।
इसी प्रकार श्री ब्राह्मणी माताजी पाटण से शिशोदा आये और सिसोदिया गहलोत वंश में निरंतर पूजाएं , शिशोदा के बाद ब्राह्मणी माताजी राणा हमीर के आग्रह पर केलवाड़ा पधारे , राणा हमीर को भी श्री ब्राह्मणी माताजी ने कई चमत्कार दिए ।
किंवदन्ती के अनुसार शिशोदा के ठाकुर को मुगलों की फौज से बचाने के लिए माँ ने बाणों की वर्षा की थीं जिससे मुगल फौज को वापस भागना पड़ा और इसी से ब्राह्मणी माताजी ही बाण , बायण माताजी के नाम से विख्यात हुए ।
वैसे तो श्री बाण माताजी का पाट स्थान चित्तोड़ गढ़ में हैं जो बप्पा रावल द्वारा 7 वीं ईस्वी में निर्मित हैं ,  मेवाड़ के इतिहास में इसकी पुष्टि होती हैं , पर मन्दिर का निर्माण कब और कैसे हुआ यह किसी को पता नही ।
चित्तोड़ गढ़ मन्दिर में श्री बाण माताजी के भक्तों का तांता दिन भर लगा रहता हैं दिन में यहा हजारों भक्त आते हैं अपने कष्टों को मावड़ी को सुनाते हैं , मेरी जग जननी महामाया सबके कष्ट दूर कर सबकी मन इच्छा पूर्ण करती हैं ।

चित्तोड़ गढ़ की धनियाणी  भक्तों को अनन्त फल देने वाली है। इनकी उपासना से मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार व संयम की वृद्धि होती है। सर्वत्र सिद्धि और विजय प्राप्त होती है। माँ ब्राह्मणी  की कृपा से उसे सर्वत्र सिद्धि और विजय प्राप्त होती है।

श्री बाण माताजी को बायण , ब्रह्माणी माताजी तो कहते ही हैं लेकिन गुजरात के रूपाळ गाँव में माँ को वरदायिनी माताजी के नाम से पुकारा जाता हैं।

वरदायिनी माताजी :
हमारा देश भारत जिसे कभी सोने की चिड़िया के नाम से जाना जाता था, ऐसा कहते हैं कि प्राचीन काल में भारत में दूध, घी की नदियां बहती थी। वैसे पुराने समय में घी शब्द का प्रयोग ही प्राचीन भारत की उस समृद्धि को व्यक्त करने के लिए किया जाता था जहां तक विश्व का कोई देश आधुनिक युग में भी शायद नहीं पहुंच पाया है। आज हम आपको एक ऐसे मंदिर की कहानी बताने जा रहे हैं जहां आज भी घी की नदी बहती है।
जी हां, यह बिल्कुल सच है। गुजरात, जिसके लिए कहा जाता है कि यहां दूध की नदियां बहती हैं उसी गुजरात में साल में एक रात ऐसी आती है जब दूध की ही नहीं बल्कि घी की नदियां बहती हैं। गुजरात के गांधीनगर में एक छोटा सा गांव है रूपाल, जहां हर साल पल्ली उत्सव मनाया जाता है। इसमें मां वरदायिनी की पूजा की जाती है।
पल्ली जो सिर्फ एक प्रकार का लकड़ी का ढांचा है, बताया जाता है कि इसमें 5 ज्योत प्रज्ज्वलित होती है और इस पर घी का अभिषेक किया जाता है। वैसे तो सामान्य तौर पर माता की ज्योत में घी का ही अर्पण किया जाता है, लेकिन पल्ली उत्सव में जिस तरह घी का चढ़ावा चढ़ता है वो अपने आप में अनोखा और देखने लायक होता है। यहां हर साल करीब 5 लाख किलो शुद्ध घी माता पर अर्पित किया जाता है और माता पर घी चढ़ाकर लोग अपनी मन्नत मांगते हैं।
हर साल नवरात्रि के आखिरी दिन मां वरदायिनी की रथ यात्रा निकाली जाती है, जो पूरे गांव में घूमती है। इसमें करीब 12 लाख लोग मां के दर्शन करते हैं और बाल्टियां और बैरल भर घी माता पर अर्पित करते हैं। बताया जाता है कि इस गांव में 27 चौराहे हैं। जहां बड़े-बड़े बर्तनों, बैरल में घी भरकर रखा जाता है। जैसे ही पल्ली वहां आती है लोग इस घी से माता की पल्ली पर अभिषेक करते हैं। अभिषेक करते ही यह घी नीचे जमीन पर गिर जाता है, जिस पर इस गांव के ही एक खास समुदाय का हक रहता है। इस समुदाय के लोग इस घी को इकट्ठा कर इसे पूरे साल इस्तेमाल करते हैं।
बताया जाता है कि इस चढ़ावे को चढ़ाते वक्त लोग इस घी से नहा जाते हैं, लेकिन आश्चर्य में डालने वाली बात यह है कि इस घी का दाग कभी भी कपड़ों पर नहीं पड़ता। जमीन पर पड़े इस घी पर कभी कोई जानवर मुंह तक नहीं मारता। ये बातें आपको जितनी हैरान कर रही हैं उससे ज्यादा हैरान करने वाली यहां आने वाले भक्तों की मन्नतों की कहानियां हैं। कहते हैं यहां आने वाले भक्तों की हर मन्नत पूरी होती है।
रुपाल गांव की वरदायिनी माता की यह कहानी पांडवों से जुड़ी हुई है। यहां जलती ये पांच ज्योत पांडवों को ही दर्शाती है। बताया जाता है कि पांडव अपने अज्ञातवास में यहीं आकर रुके थे और अपने शस्त्र छुपाने के लिए उन्होंने वरदायिनी मां का आह्वान किया था। घी का अभिषेक करने पर वरदायिनी मां यहां उत्पन्न हुईं और उन्होंने पांडवों को वरदान दिया। पांडवों ने तब संकल्प किया था कि हर नवरात्रि की 9वीं रात को वरदायिनी माता के रथ को निकालकर उसे घी का अभिषेक करवाएंगे, तभी से यह परंपरा लगातार चली आ रही है।
इस परंपरा से लोगों की मन्नतें पूरी होती हैं या नहीं इस बारे में तो कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन इस आस्था से यह जरूर साफ हो जाता है कि भले ही एक रात के लिए ही सही पर भारत में एक गांव ऐसा है जिसमें घी की नदियां बहती हैं।
इतिहास : नर्मदा नदी के चाणोद से लेकर साबरमती के उत्तर भाग को नेमेशरण्य वन के रूप में जाना जाता था , पांडवों ने अपने अज्ञातवास के दिनों में यही पर खेजड़ी के पेड़ में अपने अस्त्र - शस्त्र छुपाए थे ।
अज्ञातवास पूर्ण होने के बाद जब पांडव वापस अपने शस्त्र लेने यहा आये तब यहा रूपावटी नगरी ( आज का रूपाळ गाँव ) में उन्होंने अपने अस्त्र-शस्त्र सही सलामत मिले , और यहाँ पर माताजी ने उन्हें विजय होने का वरदान दिया था । शस्त्र मिलने पर पांडवों ने यहा ब्रह्माणी माताजी यज्ञ किया और सोने के पल्ली बना कर उसमे माताजी को देशी घी का अभिषेक किया  ।
आज कलयुग में आसो सूद नवमी को सोने की पल्ली न बना कर खेजड़ी के पेड़ की पल्ली बना कर माताजी का देशी घी से अभिषेक किया जाता हैं ।
वरदान देने से ब्रह्माणी माताजी वरदायिनी माताजी कहलाएं और भक्तों की झोली भरती  आई हैं ।

द्वापरयुग में जब बाणासुर नामक दैत्य पीड़ित सुर , नर मुनि जन नेकि थी मातेश्वरी की आराधना , यज्ञ कुण्ड से कन्या रूप में प्रकट हो किया था बाणासुर का संहार और आज के समय में दक्षिण में ' कुमारी अम्मा ' और पश्चिम में सूर्यवंशी क्षत्रियों की कुलदेवी बायन माता कहलायी ।
इतिहास :
पुराणों के अनुसारहजारों वर्षों पूर्व बाणासुर नाम का एक दैत्य जन्मा जिसकी भारत में अनेकराजधानियाँ थी। पूर्व में सोनितपुर (वर्तमान तेजपुर, आसाम) में थीउत्तर में बामसू (वर्तमान लमगौन्दी, उत्तराखंड) मध्यभारत में बाणपुर मध्यप्रदेश में भी बाणासुर का राज था। बाणासुर बामसू में रहता था।बाणासुर को कही कहीराजा भी कहा गया है और उसके मंदिर भी मौजूद हैं जिसको आज भी उत्तराखंड के कुछगावों में पूजा जाता है।
संभवतः प्राचीनसनातन भारत में मनुष्य जब पाप के रास्ते पे चलकरअतियंत अत्याचारी हो जाता था तब उसे असुर की श्रेणी में रख दिया जाता था क्यूंकिलोगों को यकीन हो जाता था की अब उसका काल निकट है और वह अवश्य ही प्रभु के हाथो मरजायेगा। यही हाल रावन का भी था वह भी एक महाज्ञानी-शक्तिशाली-इश्वर भक्त राजा था, किन्तु समय के साथ वह भी अभिमानी हो गया था औरउसका भी अंत एक असुर की तरह ही हुआ। किन्तु यह भी सत्य है की रावण को आज भी बहुतसे स्थानों पैर पूजा जाता है, दक्षिण भारत-श्रीलंका के साथ साथ उत्तर भारत में भी उसके कई मंदिर हैं जिनमे मंदसौर(मध्यप्रदेश) में भी रावन की एक विशाल प्रतिमा हैजिसकी लोग आज भी पूजा करते हैं।
बाणासुर भगवान्शिव का अनन्य भक्त था। शिवजी के आशीर्वाद से उसे हजारों भुजाओं की शक्ति प्राप्तथी। शिवजी ने उससे और भी कुछ मांगने को कहा तो बाणासुर ने कहा की आप मेरे किले केपहरेदार बन जाओ। यह सुन शिवजी का बड़ा ग्लानी-अपमान हुआ लेकिन उन्होंने उसका वरदानमन लिया और उसके किले के रक्षक बन गए। बाणासुर परम बलशाली होकर सम्पूर्ण भारत औरपृथ्वी पर राज करने लगा और उससे सभी राजा और कुछ देवता तक भयभीत रहने लगे। बाणासुरअजय हो चुका था, कोई उससे युद्ध करने आगे नहीं आता था। एक दिन बाणासुर को अचानक युद्ध करने की तृष्णाजागी। तब उसने स्वयं शिवजी से युद्ध करने की इच्छा करी। बाणासुर के अभिमानी भाव कोदेख कर शिवजी ने उससे कहा की वो उससे युद्ध नहीं करना चाहते क्यूंकि वो उनका शिष्यहै, किन्तु उन्होंने उसे कहा की तुम विचलित न होवोतुम्हे पराजित करने वाला व्यक्ति कृष्ण जनम ले चुका है। यह सुन कर बाणासुर भयभीतहो गया। और उसने शिवजी की तपस्या करी और अपनी हजारों भुजाओं से कई सौ मृदंग बजायेजिससे शिवजी प्रसन्न हो गए। बाणासुर ने उनसे वरदान माँगा की वे कृष्ण से युद्ध मेंउसका साथ देंगे और उसके प्राणों की रक्षा करेंगे और हमेशा की तरह उसके किले केपहरेदार बने रहेंगे।
समय बीतता गया औरश्री कृष्ण ने द्वारिका पे अधिकार करा और एक शक्तिशाली सेना बना ली। उधर बाणासुरके एक पुत्री थी जिसका नाम उषा था। उषा से शादी के लिए बहुत से राजा महाराजा आएकिन्तु बाणासुर सबको तुच्छ समझकर उषा के विवाह के लिए मन कर देता और अभिमानपूर्वकउनका अपमान कर देता था।बाणासुर को भय था की उषा उसकी इच्छा के विपरीतकिसी से विवाह न कर ले इसलिए बाणासुर ने एक शक्तिशाली अग्निगड़(तेजपुर, वर्तमान आसाम) बनवाया और उसमे उषा को कैद करनज़रबंद दिया।
अब इसे संयोग कहोया श्री कृष्ण की लीला, एक दिन उषा को स्वप्न में एक सुन्दर राजकुमारदिखा यह बात उसने अपनी सखी चित्रलेखा को बताई। चित्रलेखा को सुन्दर कला-कृतियाँबनाने का वरदान प्राप्त था, उसने अपनी माया से उषा की आँखों में देख कर उसके स्वप्न दृश्य कोदेख लिया और अपनी कला की शक्ति से उस राजकुमार का चित्र बना दिया। चित्र देख उषाको उससे प्रेम हो गया और उसने कहा की यदि ऐसा वर उसे मिल जाये तो ही तो ही उसेसंतोष होगा। चित्रलेखा ने बताया की यह राजकुमार तो श्री कृष्ण के पौत्र अनिरुद्धका है। तब चित्रलेखा ने अपनी शक्ति से अनिरुद्ध को अदृश्य कर के उषा के सामनेप्रकट कर दिया तब दोनों ने ओखिमठ नमक स्थान(केदारनाथ के पास) विवाह किया जहाँ आजभी उषा-अनिरुद्ध नाम से एक मंदिर व्याप्त है। जब यह खबर बाणासुर को मिली तो उसेबड़ा क्रोद्ध आया और उसने अनिरुद्ध और उषा को कैद कर लिया।
जबकई दिनों तक अनिरुद्ध द्वारिका में नहीं आया तो श्री कृष्ण और बलराम व्याकुल होउठे और उन्होंने उसकी तलाश शुरू की और अंत में जब उन्हें नारदजी द्वारा सत्य का पता चला तो उन्होंने बाणासुर परहमला कर दिया। भयंकर युद्ध आरंभ हुआ जिसमे दोनों ओर के महावीरों ने शौर्य का परिचयदिया। अंत में जब बाणासुर हारने लगा तो उसने शिवजी की आराधना करी।
भक्तके याद करने से शिवजी प्रकट हो गए और श्री कृष्ण से युद्ध करने लगे। युद्ध कितना विनाशक था इसका ज्ञान इसीबात से हो जाता है की शिवजी अपने सभी अवतारों और साथियों रुद्राक्ष, वीरभद्र, कूपकर्ण, कुम्भंदा सहित बाणासुर के सेनापति बनेऔर साथ में सेना के सबसे आगे नंदी पे उनके पुत्र श्री गणेश और कार्तिकेय भी थे।उधर दूसरी तरफ श्री कृष्णा के साथ बलराम, प्रदुम्न, सत्याकी, गदा, संबा, सर्न,उपनंदा, भद्रा अदि कई योद्धा थे।इस भयंकर युद्धमें शिवजी ने श्री कृष्ण की सेना के असंख्य सेनिको का नाश किया और श्री कृष्ण नेबाणासुर के असंख्य सैनिको का नाश किया। शिवजी ने श्री कृष्ण पर कई अस्त्र-शस्त्रचलाये जिनसे श्री कृष्ण को कोई हानि नहीं हुयी और श्री कृष्ण ने जो अस्त्र-शास्त्रशिवजी पर चलाये उनसेशिवजी को कोई हनी नहीं हुयी। तब अंत में शिवजी ने पशुपतास्त्र से श्री कृष्ण पर वरकिया तो श्री कृष्ण ने भी नारायणास्त्र से वर किया जिसका किसी को कोई लाभ नहींहुआ। फिर श्री कृष्ण ने शिवजी को निन्द्रास्त्र चला के कुछ देर के लिए सुला दिया। इससे बाणासुर की सेना कमजोरहो गयी। प्रदुम्न ने कार्तिकेय को घायल कर दिया तो दूसरी तरफ बलराम जी ने कुम्भंदाऔर कूपकर्णको घायल कर दिया। यह देख बाणासुर अपने प्राण बचा कर भागा। श्री कृष्ण ने उसे पकड़कर उसकी भुजाएँ कटनी शुरू कर दी जिनसे वह अभिमान करता था।
जबबाणासुर की सारी भुजाएँ कट गयी थी और केवल चार शेषरह गयी थी तब शिवजीअचानक जाग उठे और श्री कृष्ण द्वारा उन्हें निंद्रा में भेजने और बाणासुर की दशाजानकर बोहोत क्रोद्धित हुए। शिवजी ने अंत में अपना सबसे भयानक शस्त्र ''शिवज्वर अग्नि'' चलाया जिससे सारा ब्रह्माण अग्नि मेंजलने लगा और हर तरफ भयानक जावर बिमारिय फैलने लगी। यह देख श्री कृष्ण को न चाहते हुए भी अपना आखिरी शास्त्र ''नारायनज्वर शीत'' चलाया। श्री कृष्ण के शास्त्र से ज्वरका तो नाश हो गया किन्तु अग्नि और शीत का जब बराबर मात्र में विलय होता है तोसम्पूर्ण श्रृष्टि का नाश हो जाता है।
जब पृथ्वी और ब्रह्माण बिखरने लगे तब नारद मुनि और समस्त देवताओं, नव-ग्रहों, यक्ष और गन्धर्वों ने ब्रह्मा जी कीआराधना करी तब ब्रह्मा जी ने दोनों को रोक पाने में असर्थता बताई। तब सबने मिलकरपरा-शक्ति भगवती माँ दुर्गाजी की अराधना करी तब माताजी ने दोनों पक्षों को शांतकिया। श्री कृष्ण ने कहा की वे तो केवल अपने पौत्र अनिरुद्ध की आज़ादी चाहते हैं तोशिवजी ने भी कहा की वे केवल अपने वचन की रक्षा कर रहे हैं और बाणासुर का साथ देरहे हैं, उनकी केवलयही इच्छा है की श्री कृष्ण बाणासुर के प्राण न लेवें। तब श्री कृष्ण कहा की आपकीइच्छा ही मेरा दिया हुआ वचन है की मेने पूर्वावतार में बाणासुर के पूर्वज बलि के पूर्वजप्रहलाद को यह वरदान दिया था की दानव वंश के अंत में उसके परिवार का कोई भी सदस्यउनके विष्णु के अवतार के हाथो कभी नहीं मरेगा। माँ भगवती की कृपा से श्री कृष्ण कीबात सुनकर बाणासुरआत्मग्लानी होने लगी औरअपनी गलती का एहसास होने लगा की जिसकी वजह से ही दोनोंदेवता लड़ने को उतारू हो गए थे। बाणासुर ने श्री कृष्ण से माफ़ी मांग ली। बाणासुर केपराजित होते ही शिवजी का वचन सत्य हुआ की बाणासुर श्री कृष्ण से पराजित होयेगालेकिन वो उसका साथ देंगे और उसके प्राण बचायेंगे।
तत्पश्चातशिवजी और श्री कृष्ण ने भी एक दुसरे से माफ़ी मांगी और एक दुसरे की महिमामंडन करी।माता पराशक्ति ने तब्दोनो को आशीर्वाद दिया जिससे दोनों एक दुसरे में समा गए तब नारद जी ने सभी को कहा की आज से केवलएक इश्वर हरी-हरा हो गए हैं। फिर बाणासुर ने उषा-अनिरुद्ध का विवाह कर दिया और सब सुखी-सुखीरहने लगे। तत्पश्चात बाणासुर नर्मदा नदी के पास गया और शिवजी की तपस्या करने लगाकी उन्होंने उसके प्राणों की रक्षा करी और युद्ध में उसका साथ दिय। शिवजी ने प्रकटहो कर उसकी इच्छा जानी तब उसने कहा की वे उसको अपने डमरू बजाने की कला का आशीर्वाददेवें और उसको अपने विशेष सेवकों में जगह भी देवें तब शिवजी ने कहा की उसके द्वारा पूजे गए शिवजी के लिंगो कोबाणलिंग के नाम से जाना जायेगा और उसकी भक्ति को हमेशा याद रखा जायेगा।
अबआगे की कथा इस प्रकार है की जब अनिरुद्ध और उषा का विवाह हो गया और अंत में कृष्ण-शिव एकमें समां गए तो भी बाणासुर की प्रवृति नहीं बदली। बाणासुर अब और भी ज्यादा क्रूरहो गया। बाणासुर अब जान गया था की श्री कृष्ण कभी उसके प्राण नहीं ले सकते औरशिवजी उसके किले के रक्षकहैं तो वह भी ऐसा नहीं करेंगे।तब सभी क्षत्रिय राजाओं के परामर्श से ऋषि-मुनियों नेयज्ञ किया। यज्ञ की अग्नि में से माँ पारवती जी एक छोटी सी कुंवारी कन्या के रूपमें प्रकटहुयीं और उन्होंने सभी क्षत्रिय राजाओं से वर मांगने को कहा।
तबसभी राजपूत राजाओं ने देवी माँ से बाणासुर से रक्षा की कामना करी (जिनमे विशेषकर संभवतः सिसोदिया वंश के पूर्वज प्राचीन सूर्यवंशी राजा भी रहे होंगे) तबमाता जी ने सभी राजाओं-ऋशिमुनियों और देवताओं को आश्वस्त किया की वे सब धैर्य रखेंबाणासुर का वध समय आने पर अवश्य मेरे ही हाथो होगा। यह वचन कहकर माँ वहां से उड़करभारत के दक्षिणी छोर पर जा कर बैठ गयीं जहा पर त्रिवेणी संगम है। (पूर्व में बंगाल की खाड़ी-पश्चिम में अरब सागर और दक्षिण में भारतीय महासागरहै) बायण माता की यह लीला बाणासुरको किले से दूर लाने की थी ताकि वह शिवजी से अलग हो जाये। आज भी उस जगह पर बायणमाता को दक्षिण भारतीय लोगो द्वारा कुंवारी कन्या के नाम से पूजा जाता हैऔर उस जगह का नाम भी कन्याकुमारी है।
जब पारवती जी के अवतार देवी माँ थोड़े बड़े हुए तब उनकी सुन्दरतासे मंत्रमुग्ध हो कर शिवजी उनसे विवाह करने कृयरत हुए जिसपर माताजी भी राजी हो गए।विवाह की तय्यरिया होने लगी। किन्तु तभी नारद मुनि यह सब देख कर चिंतित हो गए कीयह विवाह अनुचित है। बायण माता तो पवित्र कुंवारी देवी हैं जो पारवती जी का अवतार होने के बावजूत उनसे भिन्न हैं, यदि उन्होंने विवाह किया तो वे बाणासुर का वध नहीं कर पाएंगी क्यूंकिबाणासुर केवल परम सात्विकदेवी के हाथो ही मृत्यु को प्राप्त हो सकता था। तब उन्होंने देवी माता के पास जाकर कहा ही जो शिवजी आपसे विवाह करने आ रहे हैं वो शिवजी नहीं है अपितु मायावी बाणासुरहै। नारद मुनि ने माता जी को कहा की असलियत जानने के लिए वे शिवजी से ऐसी चीज़मांगे जो सृष्टि में कही पे भी आसानी से ना मिले - बिना आँख का नारियल, बिना जोड़ का गन्ना और बिना रेखाओं वालापान का पत्ता। किन्तु शिवजी ने ये सब चीजें लाकर माता जी को दे दी।
जबनारद जी की यह चाल काम नहीं आई तब फिर उन्होंने भोलेनाथ को छलने का उद्योग किया। सूर्योदय सेपहले पहले शादी का महूरत था जब शिवजी रात को बारात लेकर निकले तब रस्ते में नारद मुनि मुर्गेका रूप धर के जोर जोर से बोलनेलगे जिससेशिवजी को लगा की सूर्योदय होने वाला है भोर हो गयी है अब विवाह की घडी निकल चुकीहै सो वे पुनः हिमालय वापिसचले गए। देवी माँ दक्षिण में त्रिवेणी स्थान पर इंतज़ार करती रह गयी। जब शिवजी नहींआये तो माताजी क्रोद्धित हो गयीं। उन्होंने शादी का सब खाना फेक दिया और उन्होंनेजीवन परियन्त सात्विक रहने का प्राण ले लिया और सदैव कुंवारी रहकर तपस्या में लींहो गयी।
इश्वरकी लीला से कुछवर्षो बाद बाणासुर को माताजी की माया का पता चला तब वह खुद माताजी से विवाह करने को आया किन्तु देवी माँ ने माना करदिया। जिसपर बाणासुर क्रुद्ध हुआ वह पहले से ही अति अभिमान हो कर भारत वर्ष में क्रूरता बरसा रहा था। तब उसने युद्ध केबल पर देवी माँ से विवाह करने की ठानी। जिसमे देवी माँ ने प्रचंड रूप धारण कर उसकीपूरी दैत्य सेना का नाश कर दिया और अपने चक्र से बाणासुर का सर कट के उसका वध करदिया। मृत्यु पूर्व बाणासुर ने मत परा-शक्ति के प्रारूप उस देवी से अपने जीवन भर केपापों के लिए क्षमा मांगी और मोक्ष की याचना करी जिसपर देवी माता ने उसकी आत्मा कोमोक्ष प्रदान कर दिया। यही देवी माँ को बाणासुर का वध करने की वजह से बायण माता या बाण माता के नाम से जाना जाता है। जिसप्रकार नाग्नेचियामाता ने राठौड़ वंश की रक्षा करी थी उसी प्रकार इन्ही माता की कृपा से सिसोदिया कुल के सूर्यवंशी पूर्वजों के वंश को बायण माता ने बचाया।
महा-मायादेवी माँ दुर्गा की असंख्य योगिनियाँ हैं और सबकी भिन्न भिन्न निशानिय और स्वरुपहोते हैं। जिनमे बायणमाता पूर्ण सात्विक और पवित्र देवी हैं जो तामसिक और कामसिक सभी तत्वों से दूरहैं। माँ पारवती जी का ही अवतार होने के बावजूत बायण माता अविवाहित देवी हैं। तथापरा-शक्ति देवी माँ दुर्गा का अंश एक योगिनी अवतारी देवी होने के बावजूत भी बायण माता तामसिक तत्वों से भी दूर हैंअर्थात इनके काली-चामुंडा माता की तरह बलिदान भी नहीं चढ़ता है।

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