Friday, 7 October 2016

श्री बाण माताजी मंदिर मगरिवाड़ा

मगरीवाड़ा से सटी पहाड़ी पर स्थित बाण माता के चमत्कार आज भी सुनने को मिलते है। भैरूगढ़ (वणजारी) से आकर रावल ब्राह्मण परिवारों ने बसाया था मगरीवाड़ा। करीब 580 साल पूर्व स्थापित माता के मंदिर को लेकर आज भी लोगों में अटूट आस्था है। यही कारण है कि एक हजार बीघा में पहाड़ी के चहुंओर बसे ओरण से पेड़ की एक टहनी भी काटनी तथा घर ले जाना खतरे से खाली नहीं है। हर माह शुक्ल पक्ष की चौदस को मेला भरता है तथा नवरात्र में विशेष पूजन होता है। पहाड़ी स्थित मंदिर का रास्ता दुर्गम होने तथा बुजुर्गों के लिए परेशानी होने से गांव के मध्य ही एक बाण माता का मंदिर बना दिया गया।  किवदंती के अनुसार इसी स्थान पर राक्षस बाणासुर का वध जोगमाया ने तीक्ष्ण बाणों से करने से बाणमाता हो गया। व्याख्याता व रावल ब्राह्मण समाज के छगनलाल रावल ने बताया कि गांव को रावल ब्राह्मणों ने भैरूगढ (वणजारी) के पास स्थित गेढवणा खेड़ा से आकर बसाया था। जिसे उन्हें गोमण की उपाधी मिली थी। गोठवणा खेड़ा में रावल जाति के गोपालक रहते थे। जहां हर रोज एक शेर आकर गायों को मार कर चला जाता, जिससे वे परेशान थे। एक बार एक परिवार के बुजुर्ग को माता का सपना आया। जावल के पास स्थित पहाड़ी की जगह चिह्नित कर बताया कि पहाड़ी में एक पाट मिलेगा वहां जाकर एक लकड़ी का पाट रखकर उजयाली चौदस व नवरात्र में नौ दिन दीपक करना। सपने के अनुसार पहाड़ी (वर्तमान मगरीवाड़ा स्थित बाणमाता) पर दीपक करते ही शेर का आना बंद हो गया। रावल ब्राह्मण जाति के लोग आते-जाते रहे। इस दौरान गुजरात के ठाकरड़ा जाति के लोग चोरी करने आते थे। जिससे वे भी परेशान थे। रावलों ने पहाड़ी की तलहटी पर ही तोरण बांध कर गांव बसा लिया। वहां भी चोरों का भय होने से हरणी अमरापुरा से छोटी पांति के राजपूत परिवार को लाया गया था। पुराने मगरीवाला से अपभं्रश होकर बने मगरीवाड़ा में आज भी पुरानी वाव, मकानों के खंडहर व बागी खुशालसिंह की गुफाएं है। वाव के पानी में प्रचंड तेज होने से मां के प्रताप से पानी पिने वाला शूरवीर होता था। विक्रम संवत 2042 में शिवगिरी महाराज ने पहाड़ी पर मंदिर बना कर जीर्णाद्धार करवाया था।

ओरण से नहीं काटते लकड़ी 

पहाड़ी के चहुंओर लगभग एक हजार बीघा का ओरण है। मां का चमत्कार व भय होने से आज भी पेड़ की छोटी टहनी काटने से कतराते है। ग्रामीणों का कहना है कि गांव में मौत होने पर केवल दाह संस्कार के लिए ओरण से लकड़ी लाई जाती है। अगर कोई भूल से भी सुखी या डाली लेकर घर आता है तो उसे चमत्कार मिल जाता है। मंदिर परिसर में आज भी परम्परागत गरबे होते है। जहां ग्रामीण ही गरबा गाते है।

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