मित्रों श्री बाण माताजी भक्त मण्डल जोधपुर - राज. ने हमेशा आपको कुलदेवी श्री बाण माताजी के बारें में हमेशा कुछ नया दिया हैं आज मावड़ी की कृपा से हम आपको माताजी के असली इतिहास से रूबरू करवाते हैं ।
यह तो सर्वविदित है कि मेवाड़ के राजकुल एवं इस कुल से पृथक हुई सभी शाखाओं की कुलदेवी बायण माता है अतः मेवाड़ में इसकी प्रतिष्ठा एवं महत्त्व स्वाभाविक है ।
राजकुल की कुलदेवी बायणमाता सिद्धपुर के नागर ब्राह्मण विजयादित्य के वंशजों के पास धरोहर के रूप में सुरक्षित रही है । जब-जब मेवाड़ की राजधानी कुछ समय के लिए स्थानान्तरित हुई वहीं यह परिवार कुलदेवी के साथ महाराणा की सेवा में उपस्थित रहा । नागदा, आहाड़, चित्तौड़ एवं उदयपुर इनमे मुख्य है ।
चैती एवं आसोजी नवरात्री में भट्ट जी के यहाँ से कुलदेवी को महलों में ले जाया जाता है । उस वक्त लवाजमें में ढ़ोल, म्यानों बिछात अबोगत (नई) जवान 10, हिन्दू हलालदार 4, छड़ीदार 1, चपरासी 1 रहता है ।
महलों में अमर महल (रंगभवन का भण्डार) की चौपड में जिसका आँगन मिट्टी का लिपा हुआ कच्चा है, स्थापना की जाती है । इस अवधि में कालिका, गणेश, भैरव भी साथ विराजते हैं । जवारों के बिच बायण माता के रजत विग्रह को रखा जाता है । इनमें सभी प्रकार के पारम्परिक लवाजमें में प्रयुक्त होने वाले अस्त्र शस्त्र एवं मुख्य चिन्न यहाँ रखे जाते है । अखण्ड ज्योति जलती है । विधि विधान से पूजा पाठ होते हैं । बाहर के दालान में पण्डित दुर्गासप्तशती के पाठ करते हैं । महाराणा इस अवधि में तीन-चार बार दर्शन हेतु पधारते थे । अष्टमी के दिन दशांश हवन संपन्न होता है । पूर्व में इसी दिन चौक में बकरे की बलि (कालिका के लिए) एवं बाहर जनानी ड्यौढ़ी के दरवाजे में महिष की बलि दी जाती थी , जो अब बंद हो गयी है ,उसके बदले में श्रीफल से बलि कार्य संपन्न किया जाता है ।अष्टमी के दिन हवन की पूर्णाहुति के समय महाराणा उपस्थित रहते थे । तीन तोपों की सलामी दी जाती थी । नवमी के दिन उसी लवाजमें के साथ बायण माता भट्ट परिवार के निवास स्थान पर पहुँचा दी जाती थी ।
बायण माता का इतिहास
बायण माता के इतिहास की जानकारी लेने से पूर्व यह प्रासंगिक होगा कि कुलदेवी का नाम बायणमाता क्यों पड़ा ? जैसे राठौड़ों की कुलदेवी नागणेचा नागाणा गांव में स्थापित होने के कारण जानी जाती है । वैसे बायणमाता का किसी स्थान विशेष से सम्बन्ध जोड़ना प्रमाणित नहीं है, किन्तु यह सत्य है कि इस राजकुल की कर्मस्थाली गुर्जर देश (गुजरात) रही है ।
गुजरात में होकर नर्मदा नदी समुद्र में मिलती है । यह नदी शिवलिंग की प्राप्ति का मुख्य स्थान है । इस पवित्र नदी से प्राप्त लिंग बाणलिंग (नर्मदेश्वर) कहलाते है । संभव है बाणेश्वर से शक्ति स्वरूपा बायणमाता का नामकरण हुआ हो । यह स्मरणीय है कि महाराणा भीमसिंह ने इन्हीं कुलदेवी बायणमाता के प्रेरणा से अपने स्वपूजित शिवलिंग को बाणनाथजी का नाम दिया हो ।
बाणलिंग और बाणमाता नाम में महान् सार्थकता समाविष्ट है । सामान्यतया शास्त्रों में शिवलिंग को अर्पित पत्र, पुष्प, फल, नैवैद्य का निर्माल्य अग्राह्य है, अर्थात उन्हें चण्ड (शिव का गण ) को अर्पित कर देना चाहिए या कुएं जलाशय में समर्पित कर देना चाहिए । शिवपुराण में शिवार्पित वस्तुओं का जो चंडेश्वर भाग है ग्रहण करने का स्पष्ट निषेध है । बाणमाता कब और कैसे इस राजकुल की कुलदेवी स्थापित हुई और नागदा ब्राह्मण परिवार को इसकी सेवा का अधिकार हुआ, इसके लिए सम्बन्धित सूत्रों से प्राप्त जानकारी का अध्ययन अपेक्षित है ।
अमरकाव्यम् ग्रंथ के अनुसार राजा शिलादित्य की पत्नी का नाम कमलावती था । शत्रुओं द्वारा राज्य और नगर घेर लिए जाने पर कमलावती और पुत्रवधु मेवाड़ में चली आई । शिलादित्य की पुत्रवधु उस समय गर्भवती थी, उसने पुत्र को जन्म दिया और सूर्य पूजा के बाद अपने नवजात पुत्र को “लखमावती” नामक ब्राह्मणी को सौंप कर वह सती हो गयी । लखमावती के पति का नाम विजयादित्य था । उसने शिलादित्य के पौत्र का नाम केशवादित्य रखा । इस ब्राह्मण परिवार ने अपने पुत्र की भाँति केशवादित्य का पालन किया, इसलिए वह ब्राह्मण और क्षत्रिय कर्मों से उक्त था । चित्तौड़, के समीप आनन्दीपुर (वर्तमान अरणोद) में केशवादित्य ने निवास किया एवं अपना राज्य स्थापित किया ।
केशवादित्य के पुत्र नागादित्य ने “नागद्रहा” नागदा नगर बसाया । रावल राणाजी री बात में इसकी राजधानी तिलपुर पाटन कही गई है । शत्रु के दबाव से बालक केशवादित्य को कोटेश्वर महादेव के मन्दिर में रख दिया, उनकी कृपा से बालक और रक्षक नागदा सुरक्षित पहुंच गये । गुजरात का राजा समरसी सोलंकी ने केशवादित्य को अपना वारिस बनाना चाहा, परन्तु यह संभव नहीं हुआ । विजयादित्य लखमावती वडनगरा नागर ब्राह्मण के साथ मेवाड़ की तरफ आ गए । नागदा मुख्य केन्द्र बन गया ।एतिहासिक प्रमाणों के अभाव में उपरोक्त कथनों की पुष्टि नहीं होती । राजा केशवादित्य एतिहासिक सिद्ध नहीं होते । डॉ. ओझा ने गुहिल से लेकर बापा तक की वंशावली में आठ राजाओं के नाम लिए है , इनमे केशवादित्य का नाम नहीं है । शिलादित्य का समय विक्रम संवत 703 शिलालेखों से प्रमाणित है । मेवाड़ राजकुल का गौत्र, प्रवर, कुलदेवी का नामकरण इसी समय के आस पास होना चाहिए ।
विजयादित्य एवं लखमावती के परिवार को 1300 वर्ष की मान्यता, अनेक गावों की जागीर एवं कुलगुरु का सम्मान संदिग्ध नहीं हो सकता ।
बाणमाता विभिन्न स्थानों पर राजधानी परिवर्तन के साथ विचरण करती रही है । चित्तौड़ दुर्ग में बाणमाता का मन्दिर (अन्नपूर्णा के समय ) है । इसी प्रकार तलवाड़ा में भी बाणमाता का मन्दिर है । इसके आलावा भी कुछ अन्य स्थानों पर प्रतीकात्मक मूर्तियां एवं मन्दिर है , परन्तु मेवाड़ का राजकुल इसी नागदा परिवार द्वारा सेवी विगरह को बायण जी के स्वरूप को सदीप से अंगीकृत किये हुए है । यह क्रम अखण्ड रूप से जारी है ।
राजस्थान के इतिहास में मेवाड़ का गुहिल राजवंश अपने शौर्य पराक्रम कर्तव्यनिष्ठा, और धर्म पर अटल रहने वाले 36 राजवंशों में से एक है । गुहिल के वंश क्रम में भोज, महेंद्रनाग, शीलादित्य, अपराजित महेंद्र द्वितीय एवं कालाभोज हुआ । कालाभोज बापा रावल के नाम से प्रसिद्ध हुआ । वह माँ बायण का अन्नयः भक्त था ।
बायणमाता गुहिल राजवंश ही नहीं इस राजवंश से निकली दूसरी शाखा सिसोदियां और उनकी उपशाखाओं की भी कुलदेवी रही है । दलपति विजय कृत खुम्माण रसों में माँ बायण की बापा रावल पर विशेष कृपा का उल्लेख मिलता है –
श्री बायण भगवती, भाय पूज्यां भय हरंती ।
चढ़े सिंध विचरंती, मात मुज मया करंती ॥
कालिका न झबुक्क, ज्योति काया जलहलती
सषीनाथ साबती, षलां दलती षल हलती ॥
हसंती रमंती गहक्कती, गहलोत वंश वधारती ।
सु प्रसन्न माय ए तो सदा, सघला काज सुधारती ॥
भाव सहित अर्चना करने पर भगवती बायणमाता भय से मुक्ति दिलाती है । वह सिंह की पीठ पर सवार होकर विचरण करती है । माता बायण मुझ पर दया करती है । कालिकादेवी काली होने से प्रकाशरहित होती है, पर उसके शरीर से ज्योति (प्रकाश) झिल मिलता रहता है । वह अखण्ड (शाश्वत) मित्र है, अग्नि रूप है,शत्रुओं का सर्वनाश करती है । हंसती खेलती, किलकारी करती हुई गहलोत वंश की वृद्धि (उन्नति) करती है । प्रसन्न होने पर यह माता सदा सभी कार्यों को सानन्द सम्पन्न करती है ।
कूंत षग्ग कोमंड, बाण तरगस्स बगस्सें ।
कुंठ ढाल कट्टार, तिण रिस्म थाट तरस्सें ॥
जालिम जांणें जोध, आप आवध बंधावें ।
ग्रहि भुजकरि मजबूत, माय मोतियाँ बधावें ॥
श्री हत्थ तिलक जस रो करें । माथ पुत्र मोटो करे ।
भूमि रो भार बापा भुजें । सगति रो दिध सामंत रें ॥
भाले, तलवार, धनुष बाण, तरकस प्रदान किये । कमठ (कछुवे की पीठ से बनी) ढाल कमा और कटार जो शत्रु समूह को काटती है, बापा को वीर योद्धा जान कर देवी ने अपने हाथों से धारण कराया । उसकी बाह पकड़कर शक्ति दान करते हुए माता ने उसका मोतियों से वर्धापन किया । अर्थात उसको राजा बनाया अपने हाथ से तिलक लगाकर माँ बायण ने अपने पुत्र को बड़ा (महान) बनाया और शक्ति के द्वारा दिया हुआ भूमि का भार सामंत बापा ने भुजा पर धारण किया ।
बाणमाता के मन्दिर केलवाड़ा अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि इस मन्दिर का निर्माण एक ऊँची चोटी पर किया गया था । मन्दिर का क्षेत्रफल काफी था तथा इसके चारों तरफ सुदृढ़ परकोटा था जहां सेनाएं रहा करती थी । 1443 ई. में जब सुलतान महमूदशाह खिलजी (मालवा) ने मेवाड़ पर आक्रमण किया तब वह सारंगपुर होता हुआ केलवाड़ा की ओर बढ़ा वहां पहुंचकर उसने कई धार्मिक स्थानों को नष्ट भ्रष्ट किया । सुलतान की सेना का विरोध करने वाला दीप सिंह अपने कई वीर साथियों सहित काम आया अनन्तर मुस्लिम सेना ने बाणमाता के मन्दिर को लुटा, मन्दिर में लकड़ियां भरकर उसमे आग लगा दी और अग्नि से तप्त मूर्तियों पर ठण्डा पानी डालकर उसे नष्ट किया गया । कालान्तर में वर्तमान मन्दिर का पुनः निर्माण कराया गया तथा “बायणमाता” की नवीन मूर्ति गुजरात से लाकर स्थापित की गयी ।
केलवाड़ा स्थित बायणमाता –
सिसोद वंशावली एवं टोकरा बड़वा की पोथी में यह उल्लेख है कि गढ़ मंडली राणा कुंवर लक्ष्मणसिंह द्वारका की यात्रा कर गये मार्ग में पाटण (राजधानी) में ठहरे वहाँ कच्छ के एक विशाल सींगों वाले भैंसे का बलिदान किया । इस सम्बन्ध में यह छन्द द्रष्टव्य है ।
गड पाटण गुजरात, जटे करे राज सोलंकी
पाड़ा ऊपर बही सिसोद बिजल बल बंकी
सीस सींग खुर कटिया कवर कामण बखाण
बाहि तेग सिसोद जटको जग जाहर जाण
इससे प्रसन्न होकर भटियाणी रानी ने अपनी पुत्री का विवाह उनके साथ कर दिया । सोलंकियों की कुलदेवी बायण की पेटी एवं गहनों की पेटी उन्हें सौंप दी लक्ष्मणसिंह ने बायणजी का मन्दिर बनवाकर केलवाड़ा में स्थापना की ।
उपरोक्त कथन में तिथि क्रम में त्रुटियां हैं जिन्हे इतिहास की कसौटी पर सिद्ध करना संभव नहीं है, कुलदेवी की इसी प्रतिमा एवं मन्दिर को मेवाड़ के राजकुल से विशेष महत्त्व दिया हो इसके प्रमाण नहीं मिलते, सम्भवत बाणमाता को कुलदेवी मानने के बाद इस वंश के शाखा प्रमुखों में मन्दिर बनवाये हो जिनमे से केलवाड़ा का मन्दिर भी एक है ।
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स:धन्यवाद
जय माँ बायण री
जय सोनाणा वीर री
जय बाबा री सा
जय एकलिंग नाथ जी
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